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स यो व्यस्था॑द॒भि दक्ष॑दु॒र्वीं प॒शुर्नैति॑ स्व॒युरगो॑पाः। अ॒ग्निः शो॒चिष्माँ॑ अत॒सान्यु॒ष्णन्कृ॒ष्णव्य॑थिरस्वदय॒न्न भूम॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

sa yo vy asthād abhi dakṣad urvīm paśur naiti svayur agopāḥ | agniḥ śociṣmām̐ atasāny uṣṇan kṛṣṇavyathir asvadayan na bhūma ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

सः। यः। वि। अस्था॑त्। अ॒भि। धक्ष॑त्। उ॒र्वीं। प॒शुः। न। ए॒ति॒। स्व॒ऽयुः। अगो॑पाः। अ॒ग्निः। शो॒चिष्मा॑न्। अ॒त॒सानि॑। उ॒ष्णन्। कृ॒ष्णऽव्य॑थिः। अ॒स्व॒द॒य॒त्। न। भूम॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:4» मन्त्र:7 | अष्टक:2» अध्याय:5» वर्ग:25» मन्त्र:2 | मण्डल:2» अनुवाक:1» मन्त्र:7


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर अग्निपरता से ही विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (यः) जो (भूम) बहुताई के साथ (व्यस्थात्) विविध प्रकार से स्थित होता है (स्वयुः) जो आप जाता अर्थात् बिना चैतन्य पदार्थ के भी चैतन्य के समान गति देता है। (अगोपाः) पालना करनेवाले गुणों से रहित पदाथों को अपने प्रताप से सन्ताप देनेवाला (पशुः) पशु के (न) समान (एति) जाता है। (उर्वीम्) और भूमि को (अभिदक्षत्) सब ओर से जलाता है। (सः) वह (शोचिष्मान्) बहुत लपटोंवाला (कृष्णव्यथिः) पदार्थों के अंशों को खींचने और उनको व्यथित करनेवाला (अग्निः) अग्नि (अतसानि) निरन्तर जानेवाले त्रसरेणु आदि पदार्थों को (उष्णन्) जलाता और (अस्वदयत्) स्वादिष्ठ करता हुआ (न) सा वर्त्तमान है ॥७॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो पृथिवी आदि पदार्थों में व्यवस्था को प्राप्त मूर्त्तिमान् पदार्थों का जलानेवाला रक्षकरहित पशु के समान आप जानेवाला प्रकाशमय अग्नि अपने तेज से विथरे हुए त्रसरेणुओं को भी सब ओर से तपाता है, वह अग्नि बलिष्ठ है, यह जानना चाहिये ॥७॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनरग्निपरत्वेनैव विद्वद्विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यो भूम भूम्ना व्यस्थात्स्वयुरगोपाः पशुर्नेवैत्युर्वीमभि दक्षत्स शोचिष्मान् कृष्णव्यथिरग्निरतसान्युष्णन्नस्वदयद्वर्त्तते तं यथावद्विजानीत ॥७॥

पदार्थान्वयभाषाः - (सः) (यः) (वि) (अस्थात्) वितिष्ठते (अभि) (दक्षत्) अभितो दहति (उर्वीम्) भूमिम् (पशुः) (न) इव (एति) गच्छति (स्वयुः) यः स्वयं याति सः (अगोपाः) पालकरहितः (अग्निः) वह्निः (शोचिष्मान्) बहूनि शोचींषि विद्यन्ते यस्मिन् सः (अतसानि) नैरन्तर्येण गन्त्रीणि त्रसरेण्वादीनि (उष्णन्) दहन् (कृष्णव्यथिः) यः कर्षकश्चासौ व्यथयिता च (अस्वदयत्) स्वादयति (न) इव (भूम) भूम्ना ॥७॥
भावार्थभाषाः - अत्रोपमालङ्कारः। यः पृथिव्यादिषु व्यवस्थितो मूर्त्तद्रव्यदाहको गोपालरहितपशुवत्स्वयं गन्ता प्रकाशमयोऽग्निः स्वतेजसा विस्तृतान् त्रसरेणूनपि परितपति सोऽग्निर्बलिष्ठोऽस्तीति वेद्यम् ॥७॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात उपमालंकार आहे. जो पृथ्वीवर स्थित असून प्रत्यक्ष पदार्थांचे दहन करतो. गोपालाकडून रक्षित नसलेल्या पशूप्रमाणे गमन करतो तो प्रकाशमय अग्नी आपल्या तेजाने विस्तृत त्रसरेणूंना तप्त करतो. असा अग्नी बलवान असतो हे जाणले पाहिजे. ॥ ७ ॥